सड़क, पानी, बिजली, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी समस्याओं के दशकों से समाधान न हो पाने से व्यथित जनता को लोकसभा चुनाव में ही अपनी बात सरकारी तंत्र तक पहुंचाने का सही अवसर प्रतीत हो रहा है। जन सरोकारों के मसलों के प्रति संवेदनशील जानकारों का मानना है कि बहिष्कार से नहीं, बल्कि मतदान से ही समाधान निकलेगा। ‘जब तक पौड़ी का सम्मान नहीं, तब तक कोई मतदान नहीं”, ”सड़क नहीं तो वोट नहीं”, ”हमारी पंचायत में कोई जनप्रतिनिधि प्रवेश न करे”। राज्य के अलग-अलग हिस्सों में अपनी समस्याओं के समाधान के लिए क्षेत्रीय जनता कुछ इस अंदाज में चुनाव बहिष्कार की घोषणा कर रही है।
लोकतंत्र के चुनावी महापर्व में राजनीतिक दलों और उनके प्रत्याशियों के प्रचार के बीच राज्य के अलग-अलग हिस्सों में चुनाव बहिष्कार की इन घोषणाओं से चुनाव प्रबंधन में जुटे सरकारी अमले की पेशानी पर बल हैं। सड़क, पानी, बिजली, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी समस्याओं के दशकों से समाधान न हो पाने से व्यथित जनता को लोकसभा चुनाव में ही अपनी बात सरकारी तंत्र तक पहुंचाने का सही अवसर प्रतीत हो रहा है।
लिहाजा, देहरादून, पौड़ी, चमोली जिले से लेकर ऊधमसिंह नगर और अल्मोड़ा तक कई स्थानों पर जनता अपने-अपने जन मुद्दों को लेकर सड़कों पर उतर आई है और अपनी समस्याओं के समाधान की मांग कर रही है। साथ ही जन समस्याओं के जल्द समाधान न होने पर चुनाव बहिष्कार की चेतावनी दे रही है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में जन समस्याओं के खिलाफ आवाज उठाना गलत भी नहीं है।
वोट ही एक ताकत
मगर, प्रश्न यही है कि क्या चुनाव या मतदान का बहिष्कार करने से समाधान निकल जाएगा। जन सरोकारों के मसलों के प्रति संवेदनशील जानकारों का भी मानना है कि बहिष्कार से नहीं, बल्कि मतदान से ही समाधान निकलेगा। जनतांत्रिक प्रणाली में चुनाव और वोट ही एक ऐसी ताकत है, जो अमीर और गरीब, मजबूत और कमजोर, पुरुष और महिला, जाति, पंथ, धर्म में कोई फर्क नहीं करती।
इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन पर बटन दबाने वाली हर अंगुली की ताकत एक समान है। जीवन को सरल, सुगम बनाने के लिए जनता को वोट का हथियार दिया गया है। इसके दम पर ही वह ऐसे प्रतिनिधि का चयन कर सकता है, जो उनकी समस्याओं का समाधान करे। यदि ऐसा नहीं है तो नोटा भी एक विकल्प है, जो सरकारी तंत्र का हिस्सा बनने वाले जनप्रतिनिधियों को सोचने को बाध्य कर सकता है।
चुनाव बहिष्कार से सिस्टम को आईना दिखाने की कोशिश
लोकसभा चुनाव के अवसर पर राज्य के अलग-अलग क्षेत्रों में चुनाव बहिष्कार और विरोध प्रदर्शन निसंदेह लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए चिंताजनक हैं। चिंता की एक वजह यह है कि जनता को अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए चुनाव में दबाव बनाने को बाध्य होना पड़ रहा। दूसरी चिंता उस सरकारी सिस्टम और जनप्रतिनिधियों से जुड़ी है, जिन्होंने दशकों से लोगों की ज्वलंत समस्याओं के समाधान की कोशिश नहीं की। चुनाव बहिष्कार से जनता ने एक तरह से सरकारी तंत्र को आईना दिखाने की कोशिश भी की है।
पौड़ी से लेकर अल्मोड़ा तक समस्याएं ही समस्याएं
लोकसभा चुनाव के बहाने पौड़ी से लेकर अल्मोड़ा तक गांवों और शहरों में व्याप्त समस्याओं का भी खुलासा हुआ है। साथ ही सिस्टम की भी कलई खुली है कि दशकों तक उसने इन समस्याओं की परवाह नहीं की। यदि चिंता की होती तो लोग सड़कों पर उतरकर आंदोलन नहीं कर रहे होते।
जन समस्याएं इतनी बड़ी नहीं कि समाधान न हो पाए
पौड़ी में व्यापार सभा पार्किंग, कूड़ा निस्तारण जैसी समस्या का समाधान चाहता है। जिले में अपुणु गौं मुल्क विकास समिति के बैनर तले लोगों ने इसलिए चुनाव बहिष्कार का एलान कर दिया कि एकेश्वर, बग्याली, अमरोड सड़क का कई वर्षों से डामरीकरण नहीं हुआ। यमकेश्वर विस में 35 गांवों के लोग 24 साल से कौडिया-किमसार मोटर मार्ग की समस्या का समाधान चाह रहे हैं। डोईवाला में तीन गांवों के लोग नाराज हैं कि आजादी के बाद से अब तक सड़क का निर्माण नहीं हो पाया है।
कर्णप्रयाग में किमोली-पारतोली गांव लोग सड़क के डामरीकरण न होने से इतने नाराज हैं कि उन्होंने पोस्टर लगा दिए हैं कि उनके गांवों में कोई प्रतिनिधि प्रवेश न करे। अल्मोड़ा में 15 गांवों के लोगों ने पेयजल, सड़क, स्वास्थ्य, बिजली और शिक्षा की मांग को लेकर चुनाव बहिष्कार की चेतावनी दी है। सल्ट की 11 ग्राम पंचायतों के ग्रामीण झीपा-टनौला-डबरा तक मोटरमार्ग पर डामरीकरण नहीं होने से नाराज हैं। सितारगंज में भूमि पर मालिकाना हक, पुलिस चौकी और उप चिकित्सालय की मांग को लेकर लोग आंदोलित हैं। कुल मिलाकर जो समस्याओं को लेकर जनता में गुस्सा है, वे इतनी जटिल नहीं हैं कि उनके समाधान न हो सकें।
समस्याओं के समाधान के लिए चुनाव बहिष्कार से मैं इत्तेफाक नहीं रखता। चुनाव में मतदान जनता के पास अपना मत रखने का एक अवसर है। इसका प्रयोग अवश्य करना चाहिए। तमाम दुश्वारियों के खिलाफ आवाज उठाने के और भी रचनात्मक माध्यम हैं। ये लोकतंत्र का महापर्व है, इसमें हम सभी की सक्रिय भागीदारी होनी चाहिए। प्रजातांत्रिक व्यवस्था में मताधिकार वह जनसहभागिता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से है, जो प्रतिनिधि चुनकर जाएं, वे जनता की समस्या का समाधान करें। जब इन समस्याओं के प्रति जनप्रतिनिधित्व नहीं हो पाता तो कहीं न कहीं दबाव की रणनीति के तहत जनता यह सोचने को मजबूर हो जाती है कि विरोध करने से जनप्रतिनिधि व सरकार संज्ञान लेगी। हालांकि, यह उनका लोकतांत्रिक अधिकार है, लेकिन उनके पास नोटा भी एक विकल्प है। चुनाव का बहिष्कार समाधान नहीं, वोट से ही समाधान निकालने की कोशिश होनी चाहिए।
शमीम बानो
संपादक – सच्चाई की किरण (पाक्षिक समाचार पत्र)
पता – काशीपुर