उत्तराखंड में हवा के साथ कई दल उठे और फिर दलों की भीड़ में खो गए। अस्सी का दशक आते-आते कई राजनीतिक दल तो चुनावी समर से गायब हो गए। 50 के दशक से लेकर अब तक उत्तराखंड की लोकसभा सीटों पर हुए चुनावों में कुछ दल हवा के साथ ऊपर उठे और फिर कुछ वर्षों के बाद दूसरे दलों की भीड़ में खो गए। बेशक हर चुनाव में मौजूद रहकर इन दलों ने अपने वजूद को बनाए रखने और बचाने की भरपूर जद्दोजहद की, मगर कांग्रेस और भाजपा को छोड़कर उत्तराखंड की सियासी जमीन पर दूसरे दल अपनी जड़ें नहीं जमा पाए।
दिरा गांधी की सरकार में आपातकाल के खिलाफ सियासी दलों की एकजुट ताकत से भारतीय लोक दल( बीएलडी) ने कांग्रेस को शिकस्त देकर सीटें जीतीं, लेकिन यह करिश्मा दोबारा न हो सका। जनता दल और तिवारी कांग्रेस ने भी कुछ दम दिखाया, लेकिन ये दोनों दल भी अपना प्रदर्शन नहीं दोहरा पाए। अस्सी का दशक आते-आते कई राजनीतिक दल तो चुनावी समर से गायब हो गए।
प्रत्याशी खोजना ही मुश्किल हो गया
शुरुआती संघर्ष के दौर से गुजरती भाजपा ने 90 के दशक में पहुंचकर सफलता का स्वाद चखा, लेकिन उत्तराखंड में भाजपा ने एक बार कमल खिलाया तो फिर उसे मुरझाने नहीं दिया। एक-दो अवसरों को छोड़ दें, तो कमल खिलता चला गया। लंबे समय तक कांग्रेस के लिए उत्तराखंड की सियासी जमीन काफी उर्वरा रही है, लेकिन पिछले एक दशक से उसे भी संघर्ष के दौर से गुजरना पड़ रहा है।
इतना ही नहीं बसपा, समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी सरीखे दलों ने भी अपने प्रत्याशी यहां उतारे हैं, मगर सपा को यदि छोड़ दें तो बसपा और आम आदमी पार्टी के लिए पांचों सीटों के लिए प्रत्याशी खोजना ही मुश्किल हो गया।
नई पीढ़ी के लिए ये नाम हैं नए और अनोखे
जनसंघ, जेएनपी, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (एसएसपी), स्वतंत्र पार्टी (एसडब्ल्यूए), बीजेएस, भारतीय लोकदल (बीएलडी), एनसीओ, पीएसपी.. ये नाम उन राजनीतिक पार्टियों के हैं, जिन्होंने लोकसभा चुनाव में उत्तराखंड की अलग-अलग सीटों से अपने उम्मीदवार उतारे। आज की पीढ़ी के लिए सियासी दलों के ये नाम बेशक अनसुने और अनोखे हों, लेकिन आजादी के बाद लोकतंत्र के चुनावी पर्व आए तो आजादी की लड़ाई में शामिल रहीं कई ताकतें और संगठनों ने दलों के रूप में इन चुनावों में भागीदारी की।
1977 में चमकी थी बीएलडी
इंदिरा गांधी सरकार के आपातकाल के खिलाफ कई राजनीतिक दल एकजुट हुए और उन्होंने भारतीय लोक दल (बीएलडी) के प्रत्याशी उतारे। 1977 में उत्तराखंड की टिहरी, गढ़वाल, अल्मोड़ा, नैनीताल और हरिद्वार सीट पर बीएलडी के प्रत्याशियों ने जीत दर्ज की। टिहरी गढ़वाल को छोड़कर बाकी सभी सीटों पर बीएलडी प्रत्याशियों को 60 फीसदी से अधिक वोट मिले। हरिद्वार सीट पर बीएलडी को 71 फीसदी वोट मिले। बीएलडी से मुरली मनोहर जोशी अल्मोड़ा सीट से चुनाव जीते।
शुरुआत से ही रही कांग्रेस की धमक
उत्तराखंड की सभी लोकसभा सीटों पर कांग्रेस की 1951-52 से ही धमक रही। कुछेक अवसर को छोड़ दें तो 90 के दशक तक उत्तराखंड की चुनावी राजनीति में कांग्रेस का वर्चस्व रहा। 1951 से 1971 तक कांग्रेस के सामने किसी भी पार्टी का उम्मीदवार टिक नहीं पाया। जय प्रकाश नारायण के आंदोलन की आंधी में 1977 के चुनाव में कांग्रेस की जड़ें पूरी तरह से हिल गईं। उत्तराखंड में उसका सूपड़ा साफ हो गया।
जनसंघ और भाजपा को करना पड़ा संघर्ष
आजादी के बाद हुए लोकसभा चुनाव में जनसंघ ने सभी सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे, लेकिन उसे कामयाबी नहीं मिली। कांग्रेस के सामने उसके प्रत्याशियों को पराजय का सामना करना पड़ा। 1980 में भाजपा बनीं। 1984 में पार्टी ने उत्तराखंड की सभी सीटों से प्रत्याशी उतारे और सभी को बुरी तरह से पराजय का सामना करना पड़ा। टिहरी सीट पर भाजपा के प्रत्याशी चौथे स्थान तो गढ़वाल में तीसरे स्थान पर रहे। अल्मोड़ा में भाजपा के मुरली मनोहर जोशी कांग्रेस के हरीश रावत से हार गए। नैनीताल और हरिद्वार में भी भाजपा तीसरे व चौथे स्थान पर रही। भाजपा को आगे बढ़ने के लिए अभी और संघर्ष करना था।
हवा चली तो जनता दल ने भी चौंकाया था
जनता पार्टी में शामिल दलों ने 1988 में जनता दल का गठन किया और 1989 के लोकसभा चुनाव में अपने प्रत्याशी उतारे। गढ़वाल सीट से चंद्रमोहन सिंह नेगी और नैनीताल सीट से महेंद्र सिंह पाल ने जीत दर्ज कर कांग्रेस को चौंका दिया। इस चुनाव में बहुजन समाज पार्टी ने भी प्रत्याशी उतारे। यही वह अवसर था जब चुनावी राजनीति नई करवट ले रही थी।
1991 : भाजपा की पहली शानदार जीत
भाजपा ने 1991 के लोकसभा चुनाव में धमाकेदार उपस्थिति दर्ज की। लोकसभा की पांचों सीटों पर भाजपा ने अपने सभी प्रतिद्वंद्वियों को चारों खाने चित कर दिया। इस जीत के साथ भाजपा ने उत्तराखंड की चुनावी जमीन पर नया मुहावरा गढ़ने के संकेत साफ कर दिए थे।
1996 : तिवारी कांग्रेस चमकी फिर नहीं दिखी
1996 के लोस चुनाव आए तो कांग्रेस दिग्गज एनडी तिवारी ने अलग पार्टी अखिल भारतीय इंदिरा कांग्रेस (तिवारी) बना ली और लोस में अपने प्रत्याशी भी उतार दिए। उत्तराखंड की सभी सीटों पर उतारे गए प्रत्याशियों में गढ़वाल से सतपाल महाराज और नैनीताल से एनडी तिवारी चुनाव जीते। उत्तराखंड में चमकी तिवारी कांग्रेस फिर नहीं दिखी।
भाजपा के नए युग शुरुआत
90 के दशक से उत्तराखंड में भाजपा के नए युग शुरुआत हो चुकी थी। पार्टी ने 1998 और 1999 के लोस चुनाव की कामयाबी के साथ भाजपा ने नए उत्तराखंड राज्य में कदम रखा। 2004 के लोस चुनाव में उसने पांच में से तीन सीटें जीतीं। हरिद्वार सीट से सपा प्रत्याशी चुने गए। नैनीताल से कांग्रेस को सिर्फ एक जीत नसीब हुई। 2009 में भाजपा का सफाया हो गया, लेकिन प्रदेश में उसने अपने लिए पहला और दूसरा स्थान आरक्षित करा लिया था। 2014 और 2019 के चुनाव में भाजपा ने अपनी बढ़ती राजनीतिक ताकत का अहसास कराया।
कांग्रेस का बुरा और संघर्ष का दौर
एक दौर में उत्तराखंड की चुनावी सियासत कांग्रेस का पर्याय मानी जाती थी, लेकिन समय ने ऐसी करवट बदली कि आज कांग्रेस अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। बेशक आज भी वह भाजपा के बाद प्रदेश की दूसरी बड़ी राजनीतिक ताकत है, लेकिन पिछले दो चुनाव से उसकी जीत का खाता खाली है। उसके संघर्ष का दौर जारी है।
शमीम बानो
संपादक – सच्चाई की किरण (पाक्षिक समाचार पत्र)
पता – काशीपुर